बुधवार, 14 दिसंबर 2011

'बिचार'


आज एसा लगता है की यह 'धरा' रहने के अनुकूल नहीं रह गयी है बरबस ही रहना पड़ता है. इतनी मुश्किलें पैदा हो गई हैं की जीना दूभर होता जा रहा है. बड़े शहरों की स्थिति और भी बदतर है जहाँ आबादी करोडो तक भी है. दिन दहाड़े लूट लेने वाले गिरोह, फुटपाथ पर बैठने का भी चंदा वसूलने वाले गुंडे  दादा, अपहरण कर फिरोती वसूल करने वाले गैंग, आँखों में धूल झोंक कर जेब काटने वाले ठग, इन सबसे भरे पड़े हैं हमारे महानगर.

न्याय व्यवस्था नाम की कोई चीज़ नहीं है.’जंगलराज’ की स्थिति है. बहुत सारे लोग सामाजिक व्यवस्था अर्थ - व्यवस्था  परिवर्तन हेतु प्रयत्नशील हैं, कितने सफल हुए ?  यह एक प्रश्न है.  गरीबी, भुखमरी, महंगाई पर नियंत्रण की घोषनाएं, चुनाव घोषनापत्रों में बंद पड़ी रह गई हैं. गरीब और ज्यादा गरीब हुआ है, अमीर ज्यादे अमीर. यह सब 'अहंकार', ‘स्वार्थपूरक’ अदूरदर्शी’ नीति-निर्धारण के फलस्वरूप हो रहा है. हर तरफ अशांति ही दिखती है.

पौराणिक कहानी है, एक बार अशांति से परेशान  एक स्त्री और पुरुष - दोनों के मन में साधना की भावना जागी. दोनों एक साथ प़र अलग अलग दिशाओं में निकले. बर्षों तक सफल साधना करने के बाद उन्हें कुछ सिद्धियाँ प्राप्त हुई. साधना संपन्न कर दोनों पुन: वापसी मार्ग पर मिले, एक दुसरे को प्रणाम किया. पुरुष के मन में 'अहं' काम कर रहा था, स्त्री ने बात करने की चेष्टा की तो पुरुष बोला -यहाँ क्या बात करें? चलो उधर जलाशय के जल में चलते हुए बात करें . स्त्री समझ गई कि 'अहंकार' बोल रहा है. वह बोली- वहां क्या बात होगी, चलो आकाश में उड़ते हुए बात करें. पुरुष शांत हो गया. वह उड़ने की विद्या से अनभिज्ञ था.

स्त्री भांप कर मुस्कुराते हुए बोली- किस बात काअहंकार’ ? आंखिर छोटी सी मछली भी पानी पर चल सकती है और नाचीज़ मक्खी भी आसमान में उड़ सकती है, चाहे उनकी उम्र सीमा बंधी हो. क्यों हम 'नीति निर्धारण' के द्वारा ऐसी स्थिति का निर्माण करें, जिससे हम धरती को रहने लायक बना सकें और धरती पर चल सकें.

4 टिप्‍पणियां:

  1. सबके दिलों का दर्द बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है तथा अहंकार की व्याख्या भे शानदार उदहारण द्वारा की गयी है. बधाई.

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  2. बेहतरीन उदाहरण के साथ गजब की सीख।

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  3. सार्थक पोस्ट..... गहरा सन्देश लिए है हम सबके लिए .....

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  4. माननीय - पाण्डे जी, श्रीवास्तव जी, डॉ. मोनिका जी आप सभी का 'आभार'.

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