बचपन में, 'पिताजी' की अँगुली थामे, टहलने पर एहसास होता था, मानो सारी दुनियां मेरे नीचे है, मेरे पिताजी ही दुनियाँ के सर्व श्रेष्ठ पुरुष हैं. प्राइमरी स्कूल से मिडिल स्कूल, फिर हाईस्कूल , सुहाने दिन बचपन के, गर्व से जाने कब गुजर गए. हाईस्कूल से कालेज जाते ही परिस्थियाँ धीरे धीरे बदलने लगी , मेरी आवश्यकताएं बढ़ने लगी. आकांक्षानुरूप, पूर्ति का आभाव होने लगा तो बिपरीत भावों का उद्भव प्रारंभ होने लगा. चूँकि 'पिताजी' सरकारी मुलाजिम नहीं थे, खेती बाड़ी व जंगलात कि छोटी मोटी ठेकेदारी से गुजर बसर होती थी, इसलिए मुझे कुछ कमी सी महसूस होने लगी. आभास होने लगा कि मेरा आजतक का आकलन गलत था, मेरे 'पिताजी' के अपेक्षा मेरे कुछ दोस्तों के 'पिताजी' श्रेष्ठ हैं, अधिक विद्वान हैं. शिक्षा पूर्ण होने पर, गांव से रोजगार तलाशने शहर आने पर, इस स्थिति के साथ कुछ दयनीय भाव भी जुड़ने लगे - "हम तो दुनियाँ में बहुत पीछे रह गए, पिताजी भी अन्य लोगों कि भांति गांव छोड़ कर वक्त पर शहर आते तो नौकरी पा जाते", आदि आदि.
मै नौकरी करने लगा. शनै:शनै: 'पिताजी' को इग्नोर करने लगा. घर परिवार की जमेवारियां - भाई बहनों, व अपनी शादी, भरपूर निभाई पर 'पिताजी' की राय को कम महत्व दिया. 'पिताजी' पग पग पर सलाह देते जाते थे , मुझे लगता था - रूढीवादी, पुराने ख्यालों वाली बातें करते हैं . बात बात में उनकी बातें काटना, झिडकी देना, मेरी आदतों में सुमार हो गया था. 'पिताजी' बिना किसी शिकन के धैर्य से अपनी बात फिर भी कह ही देते थे. अनसुनी करने पर , खीज कर कहते थे -" अरे सुन तो लो, आज नहीं तो कल याद करोगे".
समय अपनी रफ़्तार से चलता रहा. मैं तीन बच्चों का 'बाप' बन गया. 'माँ व पिताजी' का गाँव से शहर आवागमन चलता रहता . मेरे कई प्लान्स को भरपूर असहमति दे जाते. मैं भाव न देता.
'पिताजी' अब बृद्ध हो चले थे. एकबार उन्होंने बड़े शांत भाव से लगभग विनय के अंदाज में राय दी - 'बेटा मेरा शरीर क्षीर्ण होते जा रहा है, जाने कब बुलावा आ जाय, मेरी इच्छा है की कम से कम एक 'पौत्र' का तो "उपनयन संस्कार" देख जाता'. इस बार मैं विरोध नहीं कर पाया, उन्हीं के अनुसार 'ज्येष्ठ पुत्र' का "उपनयन संस्कार" कराया. साल भर में 'पिताजी' का स्वर्गवास हो गया .
आज मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं. पग पग पर मुझे 'पिताजी' की 'सलाह मशविरे' की आवश्कता महसूस हो रही है, पर अब 'पिताजी' नहीं हैं. मैं व्याकुल होता हूँ, व्यथित होता हूँ, तरसता हूँ, 'पिताजी' के लिए, पर वो अब नहीं हैं.
कठिन से कठिन परिस्थितियों में, मेरे असहयोग के वावजूद, वो कैसे अलौकिक धैर्य के साथ, समस्याओं का समाधान कर लेते थे, अनेक कोशिशों के बाद भी मैं अपने आप को असमर्थ पाता हूँ. सच है – “अक्ल और उम्र में कभी भेंट नहीं होती.”
बेहतरीन।
जवाब देंहटाएंअतुल जी , आभार.
हटाएंअपने माता पिता की बातें मानना चाहिए,...बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंधीरेन्द्र जी , आभार.
हटाएंमाता पिता का सम्मान साक्षात् परम्ब्र्मह का सम्मान है ....उनकी इच्छाओं को आप नहीं ताल सके यह आपकी महानता अन्ता पितृ ऋण आपका पीछा नहीं छोड़ता | बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति के लीये सादर आभार.
जवाब देंहटाएंत्रिपाठी जी,सही कहा आपने. वेवाक टिप्पणी हेतु आभार.
जवाब देंहटाएंउनकी कमी तो जीवन भर महसूस होगी..... सच, हम समय रहते समझें जो ज्यादा अच्छा ....पर अक्सर ऐसा हो नहीं पाता
जवाब देंहटाएंaapke blog par pahli baar ... bahut achha lagaa... aapki kalam yuva varg ko ek nai disha de sakti hai /
हटाएंmere bhi blog par aaye//
स्वागतम बी. पाण्डे जी, आपके स्गाब्दों हेतु आभार. स्नेह बनाए रखें .
जवाब देंहटाएंआपकी पिता श्री को दी गयी ये श्रद्धांजलि प्रेरणास्पद है.
जवाब देंहटाएंआदरणीय, पाण्डे जी.
जवाब देंहटाएंइस 'मर्म' में आपके शब्दों हेतु - आभार.
बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंअक्खतर साहब, स्वागातम व धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंएक मार्मिक श्रद्धांजलि ... बेहतरीन प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमाननीय तिवारीजी, आपकी टिप्पणी का वज़न 'विशेष' होता है. स्नेह बनाये रखें.
जवाब देंहटाएंअपने अमूल्य समय से कुछ क्षण प्रदान करने हेतु आभार.
पिताजी कि याद में बहूत हि मार्मिक
जवाब देंहटाएंऔर बहूत हि बेहतरीन प्रस्तुती है .....
बचपन में, 'पिताजी' की अँगुली थामे, टहलने पर एहसास होता था, मानो सारी दुनियां मेरे नीचे है, मेरे पिताजी ही दुनियाँ के सर्व श्रेष्ठ पुरुष हैं.।
जवाब देंहटाएंआपकी प्रथम पक्ति ही आपकी संबेदनशीलता को प्रदर्शित करती है । यह प्रस्तुति मन को छू गयी। धन्यवाद ।
रीना जी,
जवाब देंहटाएंप्रेम जी,
आपके शब्दों हेतु आभार.
जोशी जी आपके इस लेख से उन सभी लोगों को एक प्रेरणा जरूर मिलेगी जो अपने माँ बाप को जाने - अनजाने में दुख पहुँचाते हैं व उनकी परिस्थितियों और जिन्दगी के अनुभवों को नजरअंदाज करते हैं।
जवाब देंहटाएंसंवेदनशील उत्कृष्ट रचना
जवाब देंहटाएंगजेन्द्र जी, ठीक समझे आप. यही आशय भी था. आभार.
जवाब देंहटाएंवन्दना जी, सादर वंदन.
जवाब देंहटाएंबड़ों का कहे का और आंवले के खाए का बाद में पता चलता है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रेरणादायक प्रस्तुति।
सही व सटीक कहा आपने, सादर.
हटाएंdil ko chune vali aur achcha sandesh deti rachna
जवाब देंहटाएंगहराई तक पंहुची आप, आभार.
हटाएं" अरे सुन तो लो, आज नहीं तो कल याद करोगे"...........
जवाब देंहटाएंलेकिन बाल मन में तब इतनी समझ कहाँ थी.....चलो देर आये दुरुस्त आये,,,,
आभार उपरोक्त सुंदर पोस्ट हेतु........
बहुत बढ़िया भाव अभिव्यक्ति,
जवाब देंहटाएंNEW POST...फिर से आई होली...
NEW POST फुहार...डिस्को रंग...
आदरणीय महोदय
जवाब देंहटाएं''मेरी इच्छा है की कम से कम एक 'पौत्र' का तो "उपनयन संस्कार" देख जाता'. इस बार मैं विरोध नहीं कर पाया, उन्हीं के अनुसार 'ज्येष्ठ पुत्र' का "उपनयन संस्कार" कराया.''
आप भाग्यशाली हें कि पिता की इच्छा पूर्ण कर सके आपकी पोस्ट पढकर पिता से जुडी अनेक यादें ताजा हो गयीं
आपके विश्लेषण हेतु सादर आभार.
हटाएंbadhiya prastuti |
जवाब देंहटाएंरविकर जी, धन्यवाद.
हटाएंशुभकामनायें कि बच्चे कुछ इस घटना से सीखें ...
जवाब देंहटाएंसतीश जी , सादर आभार.
हटाएंpitagee unhe kahte hain jo baccho ka gam pikar unhe khushiyaan pradan krte hain.bahut acchi prastuti.
जवाब देंहटाएंडॉ निशा जी, सादर आभार, स्नेह बनाए रखें.
जवाब देंहटाएंअच्छा संदेश देती हुई, हृदय में अंकित होने वाली रचना....
जवाब देंहटाएंदिनेश जी, सादर.
जवाब देंहटाएं5बर्षो के बाद आपकी पोस्ट दुबारा पढ़ने को मिली अच्छी लगी । आपने झरोखे को गतिमान रखना चाहिए ।
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