बुधवार, 16 नवंबर 2011

अन्धी कुन्ठा

--Kewal Joshi

विनोद पटपडगन्ज अपार्ट्मेन्ट में रहता था। बचपन में ही विनोद के ‘पिताजी’ चल बसे थे, माताजी ने गाव में (दोनो बच्चो) विनोद व उमा की शिक्षा बडी मुश्किल से पूरी कराई। कभी-कभी मायके से कुछ मदद मिलती थी अधिक अपने ही मेंहनत पर निर्भर रही़। शिक्षा पूरी करने के बाद विनोद रोजगार की तलाश में दिल्ली आ गया। उपर वाले की मेंहरबानी हुई, जल्दी ही विनोद को अच्छी जाब मिल गई।

दुख के दिन धीरे- धीरे कम होने लगे, पर नियति को कुछ और ही मन्जूर था, माताजी भी चल बसी। विनोद पर मुशीबतो का पहाड् गिर गया, शिर के उप्पर से मा-बाप का साया गुजर जाने के बाद का वह सन्नाटा व दुनिया में अकेले पड जाने का दर्द, बहुत कुछ और, बिलकुल असहाय सा महसूस करने लगा था विनोद अपने आपको। रिस्तेदारो से सहानुभूति, यथासम्भव समझाने पर महिनो बाद सहज हो पाये थे दोनो भाई-बहन।

समय गुजरता गया, गाव की जिम्मेदारिया बिरादरो को सौप कर विनोद, उमा को भी अपने साथ दिल्ली ले आया था। अब वह भी जाब करने लगी थी। किस्मत से विनोद को उसके आफिस वालो की हाउसिग सोसाइटी में मैंम्बरसिप मिल गयी जो कि कम्पलीसन के करीब थी। बिनोद ने बिना समय गवाए लोन ले कर जीवन का एक पडाव पूरा किया, जो कि परदेश में नौकरीपेशा लोगो के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है। जल्दी ही नये घर (चार मन्जिले अपार्टमेंन्ट का टाप फ्लोर) में शिफ्ट होकर दोनो भाई-बहन खुश थे। रिस्तेदार व जान पहचान के लोग इनकी किस्मत पर आश्चर्य चकित थे।

जिन्दगी अपनी रफ्तार से चल रही थी, इस बीच उमा का अपने आफिस में ‘बास’ से अफेयर चल गया। विनोद को इसका पता तब चला जब एक रात उमा अपने बेडरूम से निकलकर ड्राइन्ग रूम से बहुत देर तक फोन में बाते कर रही थी। अगले दिन विनोद के पूछने पर उमा ने ‘बास’ से अफेयर स्वीकारते हुए उसकी तारीफो के पुल बाध दिये। बिनोद सन्न रह गया, मा-बाप दोनो की जिम्मेवारी निेभाते - 2 पता ही नही चला कि ‘छोटी’ कब यौवन की दहलीज पार कर गई।

‘जीवन में अनेक बार एसे क्षण आते है जब मा-बाप की कमी बहुत खलती है’ वही एक क्षण बिनोद के लिए आ पहुचा था। स्थिति भापकर बिनोद ने मामा - मामीजी को अवगत कराया जो नारोजी नगर रहते थे। मामा- मामीजी आए, उमा को समझाने / समझने की प्रक्रिया शुरू हुई। उमा ने बताया –

दलबीर भाटिया बहुत बडे रईस के इकलोते बेटे हैं, नौकरी तो ये यू ही टाइमपास और शौक के लिये करते हैं। दिल्ली में उनका अच्छा कारोबार है और वो मुझे खुश रखेंगे, मैं दलवीर से शादी करुगी, हमने साथ निभाने की कसमें खाई है आदि - 2 । पन्डित रमाशन्कर (मामाजी) अवाक हो गये। मामीजी ने अनेक प्रकार से समझाया –

“शादी-ब्याह बच्चों का खेल नहीं है। बेटा, कच्ची उमर् की कोमल भावनाओं का ज्वार कितना तीव्र होता है हम समझ सकते हैं, जहां ‘दिल’ का बहकना भी स्वाभाविक होता है, लेकिन ‘दिल’ से नहीं, ‘दिमांग’ से काम लेना होता है। पूरी जिन्दगी का निर्णय करना होता है। अभी तो तुम्हैं सब उत्तम लग रहा है शादी के बाद कुछ अनबन / ऊंच नीच हुई तो ? आए दिन न्यूज में कैसे—2 समाचार सुनने को मिलते हैं। कौन लोग हैं वो, उनके रीति रिवाज - संस्कार आदि, जांच परताल अनेक बिंदुओं पर करनी होती है। हमैं समय दो, जांच परताल करेंगे, मेंचेवल रिस्ता होगा तो उत्तम, अन्यथा अभी समय है, आपके लिए रिस्तों की कमी नहीं है, आदि – आदि---------, पर उधर जू तक नहीं रैगी, शायद मामला काफी आगे चल चुका था। मामले की गम्भीरता समझते हुए मामा-मामी जी ने हसते हुए मामला शान्त किया।

“इस तरह के मामले गम्भीर होते है इस्ट-मित्रों में भी शेयर करने में सन्कोच होता है”… मामीजी ने राय दी – मामले को तूल न दे कर, आगे खिसकाया जाय, उमा को समझाया जाय कि ‘पहले बडे भैया की शादी करेगे फिर उसका नम्बर आयेगा’। बहू आकर ‘मामला’ सम्भालने में मदद करेगी। फारमूला काम कर गया। इस बीच मामा-मामी जी ने विनोद की शादी एक अच्छे घर की लड्की से करवा दी। ‘सुनीता’ सुशील एवम समझदार थी। पुनः जीवन में खुशियो की सम्भावनाए नजर आने लगी।

समय गुजरता गया, उमा - दलवीर की प्रेम कहानी तेजी से परवान चडती जा रही थी। उमा - दलवीर अब जल्दी ही शादी कर लेना चाहते थे, दलवीर के घरवालो से सम्पर्क किया गया, वो लोग भी समझाते-2 थक हार कर सरन्डर कर चुके थे। कहते है “इश्क का भूत लग जाए तो खुदा को भी मुश्किल होता है उतारना” वही हुआ, दोनो परिवारो ने समर्पण करते हुए ‘उमा- दलवीर’ की शादी धूमधाम से करा दी। बिदाई पर विनोद के आसुओ व हिचकियो ने लावण्य व मार्मिकता के सारे बान्ध तोड दिए, भाई-बहन के बिछोह के इस क्षण पर, बाराती या घराती, कोई भी आखे नम किए बिना न रह पाया।

साल के उपरान्त विनोद–सुनीता को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। खुशी का माहौल था, नामकर्ण सन्सकार पर विनोद–सुनीता खूब खर्च कर शानदार पार्टी दी, जिसमें ‘उमा’ तो आई पर दलवीर व उसके परिवार वाले नही आए, मुरझाई हुई उमा से कारण पूछने पर वह कोई सन्तोसजनक उत्तर न दे पाई और टरकाती रही। विनोद–सुनीता को ‘कुछ दाल में काला’ अवश्य लगा, इसी बीच उमा जाने कब चली गई पता ही नही चल पाया।

नन्हे ‘रितिक’ के साथ विनोद–सुनीता की जिन्दगी मजे में कट रही थी ‘रितिक’ को क्रैच में डाल कर सुनीता भी पास के स्कूल में जाब करने लगी थी। विनोद ने कई बार उमा से फोन पर बात कर कुशलबात् पूछनी चाही पर उमा हर बार ‘सब सकुशल है’ कह कर टाल जाती। उधर शायद उमा- दलवीर में अनबन चल रही थी। यौवन / इश्क का खुमार शायद धीरे-2 उतरने लगा था।
जिन्दगी के संघर्स व वास्तविकताए एक एक कर सामने आ रही थी, शायद अब हर स्थिति पर कम्प्रोमाइज कर पाना ‘उमा’ के लिए मुश्किल होता जा रहा था। ‘उमा’ पर दुःखो की बरसात होने लग गई। एक दिन आफिस से सीधे मायके आ गई और भाभी के गले लग कर खूब रोई और बताने लगी —“ भाभी दलवीर अब पहले जैसा नही रहा, आफिस में किसी से भी बात करने पर शक करने लगा है, घर में भी छोटी-2 बातो पर गाली गलौच करता है, नौकरनी से भी बदतर ब्यौहार करता है, अब मैं क्या करू, उस आदमी के साथ कैसे निभाऊ”। सुनीता ने समझाया कि थोडी बहुत नोक झोक तो पति पत्नी में होती ही है धीरे-2 सब सामान्य होजायेगा—आदि-आदि। विनोद को सुनीता ने सब बताया। कुछ देर में ‘दलवीर’ भी आ पहुचा और उमा को पुचकारते हुए मनाजना कर साथ ले गया। विनोद–सुनीता की जान में जान आई लेकिन एक अन्जान सा भय दोनो के मन में घर कर गया।

एक बरस और जाने कब गुजर गया, ‘रितिक’ अब दीवार के सहारे चलने लगा था। विनोद सुनीता “छोटा परिवार सुखी परिवार” पर बिश्वास करते थे सो विनोद ने “आपरेशन” भी करा लिया था। विनोद कभी-2 आफिस से बाहर भी ड्यूटी पर रहता था, एक फुलटाइम कामवाली भी रख ली थी। जिन्दगी में बाहारौ का आभास होने लगा था ----- कि फिर से तूफान आ धमका, दलवीर का फोन आया कि “अपनी बहन को समझाओ—ए मेरे बस से बाहर हो गई है तालाक लेने पर आमादा है”। विनोद परिस्थिति पर विचार करने हेतु मामाजी को साथ ले कर शाम को जल्दी घर पहुचा ही था कि सामान सहित उमा भी पहुच गई। प्रणाम-आशीस के बाद लम्बी सासे भरती हुई सोफे पर पसर गई और बोली “ भैया मैंने नरक से मुक्ति पा ली है डाइवोर्स ले लिया है उस नरक में अब कभी न जाउगी, उधर सब राक्षस है, मैंने अपनी फ्रैड और वकील से मालूम किया है, मैं इस्यूलैस हूं सो अब आप लोगो के अनुसार् ही शादी करूगी। मामाजी अच्छा किया ना मैंने” ! एक ही बार में सब कह डाली वह। सारे स्तब्ध रह गये। इतना बडा फैसला अपने आप कर डाला - सुनीता बोली। “भाभी मैं कब से सहन कर रही हू--- इसके सिवा और कोइ रास्ता भी न था आप सोच रहे होगे कि हम लोग अच्छा वकील कर, केश लडते, मुवावजा तो क्लेम करते ! मैंने सब सोच लिया है कोर्ट कचहरी के चक्कर में रहते तो मेंरी नई शादी में बहुत अड्चने आती, भैया ! अ़च्छा किया ना मैंने, आप् लोगो को भी परेशान नही होना पडा”। विनोद की तरफ मुह कर वह बोली।

विनोद किकर्तब्यविमूड, चुपचाप खडा रहा। मामाजी को भी जैसे साप सूघ गया हो, सभी कुछ तो खुद ही कह डाली थी वह।
‘तालाक’ तुमने अपनी तरफ से लिखा या दलवीर ने लिखा- सुनीता ने हिम्मत कर पूछा था।
‘मैंने अपनी तरफ से लिखा’- वो बोली और एक सन्नाटा सा छा गया।
चलो सोचते है क्या हो सकता है- मामाजी कल आने का वादा करके चले गये।

‘अच्छी बाते फैलने में अधिक समय लगाती है बूरी बातें बहुत तेज फैलती है’, आसपडोस, सब जगह बात फैल गयी। “इन्सान परिस्थितियो का दास होता है” विनोद- सुनीता भी परिस्थितियो से समझौता करते हुए समय व्यतीत करते रहे। बहन की दूसरी शादी हेतु रिस्तेदारो व अखवारो द्वारा खोज शुरु कर दी। उमा भी धीरे -2 आश्वस्त सी दिखने लगी। अब उमा घर का कामकाज सम्भालने लगी। कामवाली का भी हिसाब उसने खुद ही करा दिया। ‘रितिक’ को भी अब क्रैच डालने की जरूरत नही थी क्योकि अब ‘बुआ’ घर पर ही थी। लोगों के प्रश्नो से परेशान हो कर खुद ही नौकरी न करने का फैसला किया था उसने।

समय पख लगा कर उडता रहा। ‘रितिक’ चार साल का हो गया। स्कूल छोड्ने / लाने एवम घर पर देखभाल का काम भी ‘उमा’ ही करती थी। उमा के लिए पिछले साल तक इक्के दुक्के ‘सेकेड हैन्ड’ रिस्ते आते थे कुछ उमा रिजैक्ट कर देती थी कुछ घरवालो को पसन्द नहीं आते थे, अब रिस्ते भी कम आने लगे थे। फिलहाल ‘उमा’ के रिस्ते के सिवा विनोद-सुनीता के जीवन में कोई कमी नहीं थी और समय यू ही गुजरता जा रहा था।

“नियती क्या खेल खेलेगी कोई नहीं जान पाया”। फलत - फूलते , हंसते - खेलते परिवार में एक दिन फिर से एसा तूफान आया कि सबकुछ बिखर गया…… ‘रितिक’ अचानक गायब हो गया। उमा के अनुसार थोडी देर पहले घर पर ही खेल रहा था। अकेले वो कहीं जाता न था। पूरे अपार्ट्मेन्ट में बात फैल गयी और तेजी से खोजबीन चालू हो गयी। सुनीता का रो रोकर बुरा हाल था। शाम तक कुछ भी पता न चला और पुलिस को सूचना दे दी गयी।

पुलिस ने क्रमशः सभी से पूछताछ की। पुलिस कुछ निष्कर्स पर नहीं पहुच पाई, सिवा इसके कि ‘रितिक’ की देखभाल ‘उमा’ करती थी, सो उससे एक बार फिर पूछताछ की जाय। ‘उमा’ को थाने बुलाया गया।

पुलिस आफिसर्स ने अपने तरीके से पूछताछ की तो ‘उमा’ ने जो रहस्योद्घाटन किया वह अविश्वसनीय एवम रोगटे खडे करने वाला था –

उमा ने रोते रोते कहा – “मैं स्कूल से ला कर ‘रितिक’ को छत पर ले गयी, और पीछे एकान्त की तरफ से नीचे गिरा दिया - किसी को पता नहीं चला। “कोई देख लेगा तो पकडी जाउंगी” के डर से फिर मैं नीचे ग्राउड पर उतरी। खून से लतपथ, बेजान ‘रितिक’ को कपडे में लपेट कर फिर से छत पर लेगयी, और पानी की टैंकी में डाल दिया”…..।

पुलिस ने टैंकी से ‘शव’ बरामद कर लिया।

‘उमा’ से पूछ्ने पर कि ‘एसा क्यों किया’ ? उसका उत्तर कुछ इस तरह था –
“ मेंरे भैया- भाभी को मेंरी कोई चिन्ता नहीं है। खुद बच्चे के साथ मजे कर रहे हैं, सुखी है, और मेंरी कोई परवाह नही है। मुझे नौकर की तरह यूज कर रहे हैं। मेंरी शादी के लिए कुछ नही करते हैं। अगर मैं खुश नही तो भी ये कैसे खुश रह सकते हैं ”।
हाय री बिडम्बना !! ,,,,!!, ---,अन्धी कुन्ठा ???, जिस बहन को जिगर के टुकुडे की तरह-------!! उसने यह बज्रपात किया, विनोद बेहोश हो कर गिर पडा। सुनीता निस्प्राण सी हो गई।

जिस किसी ने भी इस अनहोनी को सुना, बहुत देर बाद विश्वास किया।

आज ‘उमा’ जेल में पश्च्याताप की आग में धू-धू जल रही है। विनोद-सुनीता प्रारब्ध को कोसते हुए, फिर से उम्मीदे लिये अस्पतालों के चक्कर लगाने को मजबूर है।

“उक्त कहानी सत्य घटना पर आधारित है सिर्फ पात्र व स्थान - चित्रण काल्पनिक है”।

2 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य कथा का चित्रण बड़े सहज ढंग से करके मानव मन की विकृतियों पर आपकी लेखनी बहुत सक्षम है. लिखते रहिये.

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  2. बहुत दुखांत कहानी है! उमा ने जो किया वह क्षमा नहीं किया जा सकता. वह जरूर मानसिक तौर पर सही हालत में नहीं होगी.

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