क्रिकेट
के आकर्षण से विनय व उसके साथी भी,
बचपन से ही अछूते न थे . बात स्कूल के दिनों की है , जाड़ों की छुट्टियों में सभी
साथी , आसपास के गॉवों की टीम बना कर 'टूर्नामेंट' आयोजित कर खूब मज़े करते
थे. गेंद व गिल्लियों का जुगाड़ किसी तरह कर लिया करते. सिवा विनय के, उस गॉव की
टीम में सभी के पास अपना अपना बल्ला था. अपनी बारी आने पर, दोस्तों से बैट
मांग कर खेलना, विनय को खलने लगा. एक दिन पिताजी को अपनी ब्यथा सुना डाली.
पिताजी द्रवित हुए और 'हलवाहे' द्वारा 'हल' के ' नस्यूडा' हेतु संजो कर रखी
गयी 'बांज' की लकड़ी का बल्ला बनवा दिया गया. आम बल्ले से भारी इस बल्ले को विनय
बहुत प्रेक्टिस के बाद काबू कर पाया.
धीरे
धीरे विनय अच्छा खेलने लगा. वह आल राउन्दर था. टीम में उसकी अहमियत बढ़ने लगी और
टूर्नामेंट में विनय की टीम बार - बार जीतने लगी. विनय के हौसले आसमान पर थे. उसे
अच्छी तरह मालुम था कि यह सब बल्ले का चमत्कार था जिस पर छूते ही 'बाल' कुछ दूर तो
यों ही भाग जाती थी. वह टीम का हीरो बन चुका था. अब तो नज़ारा ही कुछ और
दिखने लगा था. जो सहपाठी दूर दूर रहा करते थे या कम अहमियत दिया करते थे,
करीब आने लगे. विनय कि ख़ुशी का ठिकाना ना रहा , जब 'जग्गू' (जगदीश) उसकी तरफ
दोस्ती का हाथ बढाने लगा. जग्गू उससे दो 'क्लास' आगे था और जूनियरों
को घास न डालता था.
"निष्कपट
मन, नि:स्वार्थ दोस्ती" इस उम्र कि यही खासियत होती है. विनय ने भी एक
कदम आगे बढ़कर दोस्ती लपकने में देर न लगाईं. जग्गू कृशकाय होने के वावजूद चतुर व
मेघावी छात्र था. शातिर भी है, विनय को पता न था. बैटिंग उसके बस कि बात न थी, हाँ
बालिंग अच्छी कर लेता था. जग्गू को विनय का टीम में चमकना बिलकुल न भाया-- कल का
छोकरा, बैटिंग भी - बालिंग भी - और हम से आगे !..., उसका मन इर्ष्या से भर गया और
विनय के 'पर' कतरने की योजना बना डाली.
जग्गू
और विनय की दोस्ती जल्दी ही परवान चढ़ गयी. अब जहाँ जग्गू वहां विनय. जल्दी ही
जग्गू ने विनय को समझाना शुरू कर दिया....
यार दोस्त, इस बैट की वजह से तुम बहुत अच्छे रन
नहीं बना पा रहे हो.
क्या बात करते हो.. विनय बोला.
अबे, यह बैट बेडौल व भारी है, तराश कर सुडौल व
हल्का बनाया जा सकता है. फिर देखना ...
दोस्ती
में भरोसा करना ही पड़ता है वह भी सीनियर का, विनय ने भी किया और बैट छिलवाया गया
और हल्का हो गया.
अगले टूर्नामेंट में भी विनय ने खूब रन पीटे, और
टीम फिर से जीत गयी. जग्गू का दॉव फेल हो गया पर वो हार न माना, फिर से पट्टी
पढ़ाई....
देखा दोस्त, मेरी ट्रिक... और तराशना पढेगा बैट -
फिर देखना रनों की बरसात...,
विनय मान गया और फिर से बैट छिलवा दिया गया.
अगले
दिन टूर्नामेंट फाइनल था. बिनय की टीम भरपूर जोश में थी. अपोजिट टीम भी दमदार थी.
विनय की बारी भी आ गई. पर यह क्या ? विनय का बैट दो ओवर भी ना झेल पाया. दूसरे ओवर
की तीसरी बाल पर ज्यों ही विनय ने शार्ट मारा... बैट का हत्था हाथ में और अग्रभाग
टूटकर दूर छिटक गया. विनय टीम सहित स्तब्ध रह गया....कुछ ही देर में पूरी टीम आउट
हो गयी... और टीम हार गयी....
मैदान के दूसरे छोर पर ‘जग्गू’ दूसरे साथी से
कानाफूसी कर रहा था... 'बहुत उछल रहा था कमीना,.....कपिलदेव समझने लगा था खुद
को... आ गया ना ज़मीन पर....
अपनी टीम के हारने का कोई अफ़सोस जग्गू के चहरे पे लेशमात्र न था. जग्गू सफल हुआ.
आज भी 'जग्गू' जैसे लोग, हमारे इर्द - गिर्द,
'नीचे से ऊपर तक' भरे पड़े हैं जो दिन प्रतिदिन अपनी उपस्थिति का आभास कराते रहते
हैं.
(शब्दार्थ- १. "नस्यूडा"- 'हल' का अगला 'पार्ट' जो भूमि को चीरता है.
२.
"बांज" - 'शीशम'
की तरह का पेड़, जिसकी लकड़ी मजबूत होती है. )